किसी ने नहीं सुना - 1 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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किसी ने नहीं सुना - 1

किसी ने नहीं सुना

-प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 1

रक्षा-बंधन का वह दिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा अभिशप्त दिन है। जो मुझे तिल-तिल कर मार रहा है। आठ साल हो गए जेल की इस कोठरी में घुट-घुटकर मरते हुए। तब उस दिन सफाई देते-देते शब्द खत्म हो गए थे। चिल्लाते-चिल्लाते मुंह खून से भर गया था। मगर किसी ने यकीन नहीं किया। पुलिस, कानून, दोस्त, रिश्तेदार, बच्चे और बीवी किसी ने भी नहीं। सभी की नज़रों में मुझे घृणा दिख रही थी। सभी मुझे गलत मान रहे थे। मेरी हर सफाई, हर प्रयास घृणा की उस आग में जलकर खाक हो गए थे।

ज़िंदगी भर से सुनता आ रहा हूं, कानून के हाथ बड़े लंबे होते हैं, उससे बड़े से बड़ा चालाक अपराधी भी नहीं बच सकता, लेकिन यहां अपराधी आठ बरस से आराम से घूम रहे हैं, मस्त जीवन जी रहे हैं। अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए एक निर्दोष को धोखे से फंसा कर अपराधी साबित कर दिया। कानून के शिकंजे में वे नहीं बल्कि उन सबने उसे अपने शिकंजे में कर प्रयोग कर लिया। और उनकी साजिश का शिकार बना मैं जेल में सड़ रहा हूं। वो भी दुनिया के सबसे घृणित अपराध के आरोप में । एक बलात्कारी के रूप में। अपनी ही साथी से बर्बरतापूर्वक बलात्कार करने, उसकी हत्या करने के प्रयास के आरोप में। धारा तीन सौ छिहत्तर, तीन सौ सात के तहत। आज भी बीवी से नज़र मिला नहीं पाता। बहन राखी बंधवाने फिर आने लगी है। शुरू के दो बरस तो वह आई ही नहीं। हां न जाने क्यों बहनोई शुरू से ही अन्य सबकी अपेक्षा मेरे प्रति नरम रहे हैं और ढांढ़स बंधाते रहते हैं, और जिस साले को मैं उठाईगीर, छुट्ट भैया नेता मानता था वह सबसे ज़्यादा काम आया।

उस दिन भी जब मैं राखी बंधवाने के बाद वापस घर आने के लिए निकला और बहनोई के पैर छूने लगा तो उन्होंने गले से लगाकर कहा था,

‘नीरज गाड़ी आराम से चलाना। यार कहना तो नहीं चाह रहा था लेकिन बात क्योंकि तुम मियां-बीवी के बीच खटास का कारण बनती जा रही है, इसलिए कह रहा हूं। इसे एक बहनोई की नहीं एक सच्चे मित्र की सलाह मानकर विचार करना। देखो बाहर जो भी करो मगर इसका ध्यान रखो कि उससे तुम्हारा परिवार डिस्टर्ब न हो। घर की शांति न भंग हो। क्योंकि घर की शांति गई तो समझ लो सब गया। ऑफ़िस में संजना के साथ तुम्हारे जो भी संबंध हैं उसे मैं तुम्हारा पर्सनल मैटर मानता हूं।

मगर जब कोई मैटर अच्छे ख़ासे खुशहाल परिवार की नींव हिलाने लगे तो ज़रूर सोचना चाहिए। तुुम एक खुशहाल परिवार के मालिक हो। दो होनहार बच्चे हैं। और बहुत खुशकिस्मत हो कि नीला जैसी बेहद समझदार पढ़ी-लिखी बीवी मिली है। ऐसे में संजना जैसी औरत की तुम्हारी ज़िंदगी में कैसे कोई अहमियत हो सकती है। कम से कम मैं तो नहीं समझता। गंभीरता से विचार करो। नीला और बच्चों में ही तुम्हारी सब खुशी है, सारा संसार है और उन सबका तुम में। तुम अपने परिवार की खुशी छीन कर कहीं और लुटा रहे हो, नीरज। जबकि वह तुम्हें पहले ही एक बार चीट कर चुकी है। यदि मेरी बात अच्छी न लगे तो क्षमा करना।’

उन्होंने इतना कहकर बड़े प्यार से कंधा थप-थपाकर बिदा किया था। उनकी बात में, कंधा थप-थपाने में एक पिता का सा भाव था। अपनत्व की शीतलता थी। लेकिन तब मेरी मति पर पत्थर पड़ा था। संजना के प्यार नहीं बल्कि उसके छद्म प्यार की काली छाया थी मुझ पर, और मुझे उनकी बात बुरी लगी थी। तब मेरे मन में आया था कि यह समझाना-बुझाना ज़्यादा हुआ तो आना ही बंद कर दूंगा। बहन पर भी गुस्सा आया था कि वह भी कभी फ़ोन पर, कभी मिलने पर संजना को लेकर व्यंग्य करना नहीं भूलती। भले ही मजाक के रूप में कहे, कहती ज़रूर है। गुस्सा बीवी पर भी बहुत आया था। उसे मन ही मन न जाने कितनी गालियां दी थीं। कोई भी ऐसी भद्दी गाली न थी जो उस वक़्त न दी हो। घर पहुंच कर पीटने का भी मन कर रहा था कि यह मेरी बातें बताती क्यों है मेरी बहन बहनोई से। और न जाने किस-किस से बताती रहती है। गुस्सा इतना बढ़ गया था कि घर न जाकर एक होटल में बैठ गया था। फिर वहीं चाय नाश्ता करते-करते गुस्से से उबलते-उबलते संजना को फ़ोन कर दिया था। मन में उस वक़्त चल रहा था कि रोकना हो तो रोक लो। जितना कहोगे उतना जाऊंगा। इन सबसे मेरी ज़रा सी खुशी देखी नहीं जाती। सब सिर्फ़ पैसे के साथी हैं। अपने-अपने सुखों के लिए मरते रहते हैं। मैं दो पल की खुशी कहीं ढूंढ़ लेता हूं तो सब भड़क उठते हैं। गुस्सा और प्रतिशोध उस वक़्त इतना बढ़ गया था कि संजना से फ़ोन पर उस वक़्त यह सारी बातें शेयर कर डाली थीं। बीच में कुछ दिनों गंभीर अनबन के बाद संजना से दुबारा मेरे रिश्ते जब से मधुर हुए थे तब से मैं उसको लेकर और भी ज़्यादा पजेशिव हो गया था।

यह सब बताते-बताते एकदम भावुक हो उठा था। उस वक़्त बीवी बच्चे सब मुझे सबसे बड़े दुश्मन लग रहे थे और संजना सबसे बड़ी हितैषी। तब की अपनी सबसे बड़ी हितैषी से मैंने तुरंत मिलने के लिए कहा। पहले वह तैयार न हुई। बहुत जोर देने पर दो घंटे बाद आई थी। उसे देखकर मैं खुशी से एकदम फूल गया था। मुझे अपनी सारी खुशियां उसी में दिख रही थीं। इत्तेफ़ाक से वह भी अपने घर वालों से झगड़ा करके आई थी। अपनी मां और अपने इकलौते भाई से। उसकी चार बहनें थीं उनसे भी उसकी पटती नहीं थी। दरअसल वह अपने मायके में ही रहती थी। अपने पति से अलग रहते उसे तीन साल हो गए थे। जब छोड़कर आई थी तो अपने छः वर्षीय बेटे को भी साथ ले आई थी। उसके ससुरालियों का कहना था कि वह बेहद झगड़ालू है, किसी के साथ उसकी नहीं निभ सकती। पति ने जब अलग रहने की उसकी बात नहीं मानी थी तब उसने उन्हें भी छोड़ने का फैसला एक झटके में ले लिया था।

पति की मर्जी के खिलाफ उसने नौकरी भी शुरू की थी। यह भी दोनों के बीच झगड़े का एक और कारण था। पति कहता था जितना कमाता हूं वह काफी है। लेकिन वह कहती तुम्हारा बिजनेस बाकी भाइयों की तरह अच्छा नहीं चल रहा। इसलिए मैं भी कमाऊंगी। जिठानियों, देवरानियों के पैसों को लेकर जो कमेंट होते हैं मैं एक सेकेंड को सहन नहीं करूंगी। मैं किसी से कम नहीं रह सकती। तुम अपना हिस्सा लेकर अलग क्यों नहीं रहते। पति जब नहीं माना तो छोड़ आई घर, रहने लगी थी मायके में।

यह संयोग ही था कि उसकी एक और बहन भी मायके में ही रहती थी। उसके आदमी ने उसे शादी के कुछ ही महीनों बाद छोड़ दिया था। कि वह पत्नी धर्म निभा ही नहीं सकती। धोखे से शादी कर उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। पर अब और नहीं। संजना की अपनी ऐसी संन्यासिनी बहन से भी नहीं पटती थी। सन्यासिनी इसलिए कि पति से संबंध-विच्छेद के बाद उसका अधिकांश समय पूजा पाठ में ही बीतता था। चार-छः महीने में ही कभी बोल-चाल हो पाती थी। घर वाले भी उसकी सारी ज़्यादती इसलिए सहते कि फिलहाल दो साल से पूरे घर का खर्च वही चला रही थी। क्योंकि भाई का बिज़नेस ठप्प पड़ गया था, और फादर को रिटायर हुए कई साल हो गए थे। बीमार अलग। वह घर की इस स्थिति का पूरा फ़ायदा उठाती थी। जो चाहती थी करती थी।

ऐसी संजना जो अपनों की, अपने पति की नहीं थी, अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकती थी। मैं उसी का दिवाना बना हुआ था। दिवानगी ऐसी थी कि उसके लिए मैं भी अपनों, अपनी पत्नी, बच्चों को दरकिनार कर बैठा था। उस दिन बहनोई ने सब समझाया तो अंदर ही अंदर तिलमिला उठा था। और रोम-रोम, संजना-संजना चिल्ला उठा था। उससे मिलने के लिए बेवकूफों की तरह उसका देर तक इंतजार किया था। जब आई तो घर भर की शिकायत कर डाली थी उससे। और उसने भी बताया कि वह भी झगड़ कर आई है। और जीभर कर अंडबंड अपने घर वालों को कहा। भाई को भी राखी बांधने के आधे घंटे बाद ही खूब खरी-खोटी सुनाई और हिदायत भी दी कि वह छोटा है छोटे की ही तरह रहे। उससे कोई पूछताछ न किया करे। उसने यह धमकी उसके माध्यम से वास्तव में पूरे घर को दी थी। अपने घर वालों पर जीभर भड़ास-निकालने के साथ ही उसने होटल में जीभर कर पकौड़ी और दही बड़े खाए थे।

उसका हाथ फेंक-फेंक कर, आंखें नचा-नचाकर बातें करना उस समय मुझे बहुत भाया था। वह बला की खूबसूरत लग रही थी। उसकी बातों से साफ था कि झगड़कर आने के कारण उसे घर जाने की कोई जल्दी नहीं है।

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